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Sacred Games Series stories All seasons

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Post time: 29-9-2018 15:17:39
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1. अश्वत्थामा

वो शिव के वरदान से जन्मा था. गुरु द्रोणाचार्य और मां कृपि का बेटा. पैदा हुआ तो गले से घोड़े की हिनहिनाहट जैसी आवाज़ गूंज गई इसलिए नाम अश्वत्थामा रखा गया. जन्म से माथे पर एक मणि जड़ी थी जो उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग सबसे निर्भय रखती थी. इस मणि के कारण उस पर किसी अस्त्र-शस्त्र का असर नहीं हो पाता था. इसी वजह से उसे कभी कोई नहीं हरा पाया. बचपन में तंगहाली थी घर में. उसके पीने को दूध तक नहीं था. पिता गाय मांगने एक राजा के दरबार गए तो उसने अपमानित करके निकाल दिया. बाल अश्वत्थामा ने ये देखा. ख़ैर, बाद में द्रोण कौरवों के गुरु बन गए. उन्होंने बेटे को धनुर्वेद के सब रहस्य सिखा दिए. अश्वत्थामा ने सारे अस्त्र सिद्ध कर लिए थे. वो भीष्म पितामह, परशुराम और अपने पिता द्रोण के बराबर का धनुर्धर हो गया था. अर्जुन और कर्ण जिन्हें बेस्ट माना जाता है वो भी उससे श्रेष्ठ नहीं थे. अश्वत्थामा को नारायणास्त्र का ज्ञान था. महाभारत में उसके और गुरु द्रोण के सिवा ये अस्त्र किसी के पास नहीं था. जब कौरवों और पांडवों की लड़ाई हुई तो पिता कि तरह वो भी कौरवों तरफ से लड़ा. युद्ध में उसने और उसके पिता ने पांडवों की सेना को बर्बाद कर दिया. उसने भीम के पोते और घटोत्कच के बेटे अंजनपर्वा को मार दिया. पांडवों की अक्षौहिणी सेना को खत्म कर दिया. उसने देखते ही देखते द्रुपद, सुत सुरथ, शत्रुंजय, कुंतीभोज के 90 पुत्रों और बलानीक, जयाश्व, श्रुताह्य, हेममाली, पृषध्र और चंद्रसेन जैसे वीरों को मार दिया. युधिष्ठिर की सेना को भगा दिया. उसने इतनी बर्बादी की कि पांडवों के खेमे में आंतक व्याप्त हो गया. उसे रोकना ज़रूरी हो गया था नहीं तो हार तय थी. इतनी हालत खराब कर दी कि उसे और द्रोण को रोकने के लिए अनैतिक रास्ता अपनाया गया. द्रोणाचार्य को मारने के लिए अफवाह उड़ाई गई कि अश्वत्थामा मारा गया. असल में भीम ने अवंतिराज के हाथी अश्वत्थामा को मारा था. लेकिन फैलाई गई अफवाह द्रोण ने सुनी तो धक्क से रह गए. उन्होंने सच जानने के लिए युधिष्ठिर से पूछा क्योंकि वे धर्मराज कहलाते थे और कभी झूठ नहीं बोलते थे. युधिष्ठिर ने बोला – “अश्वत्थामा मारा गया, परन्तु हाथी.” लेकिन कृष्ण ने उसी समय शंखनाद कर दिया जिससे द्रोण आखिरी दो शब्द सुन नहीं पाए. उन्हें लगा कि उनका पुत्र मारा गया. वे आंखें बंद करके शोक में बैठ गए, सब शस्त्र त्याग दिए. वे शोक में निहत्थे बैठे थे कि द्रोपदी के भाई धृष्टद्युम्न ने उनका सिर काट दिया.

इसके बाद पांडवों की युद्ध में जीत तय हो गई. लेकिन अश्वत्थामा के क्रोध ने तूफान का रूप ले लिया. उसके पिता को जिस तरह छल से मारा गया तो उसने भी युद्ध के सब नियम ताक पर रख दिए जबकि अश्वत्थामा ऐसा आदमी था जिसके असीम बल के साथ उसकी बुद्धि और शील की प्रशंसा भी लोग करते थे. भयंकर क्रोध और दुख में डूबे अश्वत्थामा ने नारायणास्त्र छोड़ा. इस अस्त्र के आगे जो झुकता नहीं, आत्मसमर्पण नहीं करता, उसकी मौत तय है. पांडवों की सेना ने घुटने टेक दिए. पांडव भी झुक गए और उनकी मौत नहीं हुई. अब उनको मारने के लिए अश्वत्थामा घोर काली रात में उनके शिविर में घुस गया. वहां पांडवों के पांच पुत्र सो रहे थे जिनको पांडव समझकर अश्वत्थामा ने उनके सिर काट दिए. धृष्टद्युम्न जाग गया और अश्वत्थामा ने उसे भी मार दिया. पांडवों के सोते बच्चों को मारने के इस काम की सबने निंदा की. अर्जुन बेटे की हत्या का बदला लेने गांडीव लेकर अश्वत्थामा के पीछे दौड़ा. डर से अश्वत्थामा ने उस पर ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया, जो सबसे विनाशकारी अस्त्र माना जाता है, जैसे आज का न्यूक्लियर बम. अर्जुन ने भी उसे रोकने के लिए ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया. अब तबाही होने लगी. इसे देखते हुए ऋषियों ने प्रार्थना की. अर्जुन ने अपना ब्रह्मास्त्र वापस ले लिया, लेकिन अश्वत्थामा को अस्त्र छोड़ना आता था, वापस लेना नहीं इसलिए उसने अभिमन्यु की विधवा उत्तरा के गर्भ की तरफ उसे मोड़ दिया, ताकि पांडवों के वंश का नाश हो जाए. लेकिन कृष्ण ने उत्तरा और उसके गर्भ को बचा लिया. अब अश्वत्थामा को बंदी बनाकर लाया गया. ब्राह्मण और गुरुपुत्र होने की वजह से उसे मारना धर्म के खिलाफ होता है, अतः अर्जुन ने उसके केश काट दिए और मणि निकाल ली. मणि निकलने से उसकी सारी शक्ति चली गई. कृष्ण ने उसे श्राप दिया कि वो 6 हजार साल तक भटकता ही रहेगा. माना जाता है कि अश्वत्थामा आज भी जिंदा है और भटक रहा है.


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 Author| Post time: 29-9-2018 15:18:27
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Edited by mahima2701 at 29-9-2018 03:19 PM

2  हलाहल

ये वो विनाशकारी विष था जो समुद्र मंथन के दौरान निकला था. दुर्वासा ऋषि के श्राप के बाद देवताओं के राजा इंद्र की शक्ति खत्म हो गई थी. शुक्राचार्य के सहयोग से तीनों लोकों पर दैत्यों के राजा बलि का राज था और अब दैत्य, असुर बहुत ताकतवर हो गए थे. ऐसे में ब्रह्मा के साथ मिलकर सब देवता विष्णु के पास गए और उन्हें हाल बताया. उन्होंने कहा कि समुद्र मंथन करो और उसमें से अमृत निकालकर पियो जिससे शक्तियां लौटेंगी. इस मंथन को देवता अकेले कर नहीं सकते थे तो विष्णु के बताए अनुसार उन्होंने दैत्यों के राजा बलि को अमृत का लालच दिया. फिर मंथन शुरू किया गया. सागर को मथने के लिए मथनी, नेती, आधार और दोनों तरफ खींचने वालों की जरूरत थी. मंदराचल पर्वत को मथनी बनाया गया. वासुकी नाग को मथने वाली डोरी और विष्णु ने कछुए का रूप धारण किया जिनकी एक लाख योजन चौड़ी पीठ पर मंदराचल पर्वत रखा गया. वासुकी के मुंह की तरफ दानव खड़े हुए और पूंछ की तरफ देवता. अब मथना शुरू किया गया.

इस समुद्र मंथन में चौदह मूल्यवान वस्तुएं निकलीं. कामधेनु गाय, उच्चैःश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी, कौस्तुभमणि नाम का हीरा, कल्पवृक्ष, अप्सरा रंभा, धन की देवी लक्ष्मी, वारुणी मदिरा, चंद्रमा, परिजात वृक्ष, शंख, देववैद्य धनवंतरि और अमृत का घट. लेकिन इन सबसे पहले मंथन से निकला था हलाहल विष. उसे कालकूट भी कहा जाता है. इस हलाहल विष की ज्वाला बहुत तेज़ थी. इसकी ज्वाला से देवता और दैत्य सब जलने लगे और उनकी चमक बुझने लगी. ये विष पूरे ब्रम्हांड को नष्ट कर सकता था. देवताओं तथा असुरों ने प्रार्थना की तो खुद भगवान शिव हलाहल विष पीने आए. उन्होंने विष को हथेली पर रख कर उसे पी लिया, लेकिन पत्नी पार्वती उनके पास खड़ी थी, उन्होंने उनके गले को पकड़ लिया ताकि विष शरीर में न जा सके. वो उनके कंठ में ही ठहर गया. इस हलाहल / कालकूट विष के प्रभाव से शिव का कंठ नीला पड़ गया. हलाहल विष पीते समय शिव की हथेली से थोड़ा-सा विष पृथ्वी पर टपक गया, जिसे सांप, बिच्छू आदि विषैले जन्तुओं ने ग्रहण कर लिया.
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 Author| Post time: 29-9-2018 15:21:17
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3  अतापि वतापि

पूर्वकाल में मणिमती नगरी में एक बहुत शक्तिशाली और अथाह धन वाला दैत्य इल्वल रहता है. उसका एक नाम अतापि भी था. वतापि उसका छोटा भाई था. एक बार अतापि ने एक ऋषि से प्रार्थना की कि वो उसे ऐसा पुत्र दे जो इन्द्र जितना प्रतापी हो. लेकिन उस ऋषि ने उसे ऐसा पुत्र नहीं दिया. इस पर वो इतना क्रोधित हुआ कि ब्राह्मणों को एक-एक करके मारने लगा. वो ब्राह्मण को अपने यहां भोजन के लिए बुलाता था. अतापि मायावी था. वो अपने भाई वतापि को बकरा बना देता था. दैत्य वतापि खुद भी रूप धरने में माहिर था. वो भेड़ या बकरा बन जाता था. फिर अतापि उसका मांस रांधता था और ब्राह्मण को खिलाता था. अतापि मृत संजीवनी विद्या का ज्ञाता था. उसमें यह शक्ति थी कि वह यमलोक में गए जिस भी प्राणी को नाम लेकर पुकारता वो उसी शरीर में जीवित लौट आता था. मांस खिलाने के बाद अतापि अपने भाई को ज़ोर से आवाज लगाता था और सुनकर महादैत्य वतापि उस ब्राह्मण का पेट फाड़कर हंसता हुआ सशरीर बाहर निकल आता था. इस तरह इन दोनों भाइयों ने कई ब्राह्मणों को कष्ट देकर धोखे से मारा. लेकिन एक बार अगस्त्य ऋषि अतापि के यहां धन प्राप्ति के लिए आए. उसने फिर यही किया. अपने भाई वतापि को भेड़ बनाकर पकाया और अगस्त्य व उनके साथ आए लोगों को परोसा. सब जानते हुए भी अगस्त्य मांस खा गए. फिर जब अतापि ने अपने भाई को ज़ोर का पुकारा तो वो नहीं निकला. अगस्त्य उसे पचा गए थे. इस पर अतापि ने उनसे प्रार्थना की. उसने अगस्त्य व उनके साथ आए ब्राह्मणों को अपार दान देकर विदा किया. और दोनों भाइयों को अभयदान मिला. हालांकि ऐसा भी कहा जाता है कि अगस्त्य ऋषि ने बाद में अतापि को भी अपनी दृष्टि से भस्म कर दिया था.
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 Author| Post time: 30-9-2018 15:04:57
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4. ब्रह्महत्या

इंद्र स्वर्ग पर राज करते थे तब वहां एक देवगुरु हुआ करते थे. नाम था विश्वरूप. उनके तीन सिर थे. एक दिन इंद्र को पता चला कि विश्वरूप यज्ञ के दौरान देवताओं के अलावा असुरों के लिए भी हविष डालते हैं. वे यज्ञ के दौरान देवताओं का भाग ऊंचे स्वर में डालते थे, मनुष्यों का मध्यम स्वर में और दैत्यों का भाग चुपचाप समर्पित करते थे. इंद्र ने ये देखा तो यज्ञवेदी पर ही उनका वध कर दिया. इससे विश्वरूप की वहीं मृत्यु हो गई और इंद्र ब्रह्महत्या के अपराधी हो गए. तभी वहां धुएं जैसे रंग और तीन सिर वाली ब्रह्महत्या प्रकट हुई. वो इंद्र को निगलने के लिए आगे बढ़ी और ये देख इंद्र बहुत डर गए और वहां से भाग गए. वे भागते रहे और ब्रह्महत्या उनका पीछा करती रही. अंत में वे पानी में कूद गए. कहा जाता है कि ब्रह्महत्या के पाप का पश्चाताप करते हुए इंद्र एक लाख वर्षों तक पानी में एक फूल में बंद होकर रहे. दूसरी ओर ये मिथक भी है कि ब्रह्महत्या से बचने के लिए वे 300 साल उसी जल में रहे. इस दौरान स्वर्ग में अराजकता छा गई. स्थितियां खराब हुईं तो देवता इंद्र को वापस ले जाने आए. इंद्र को इस पाप से मुक्त करवाने के लिए ब्रह्महत्या का दोष चार हिस्सों में बांटा गया. ऋषियों की सलाह पर पृथ्वी, जल, स्त्री और वृक्षों ने एक-एक चौथाई हिस्से को स्वीकार किया. जिसके बदले में इन चारों को एक-एक वरदान मिला. इस तरह इंद्र को ब्रह्महत्या के अपराध से मुक्ति मिली.
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